
“माँ”
अनगिनत बार
अहसासों के शब्दकोश से,
चंद मार्मिक शब्दों को,
अपनी भावना की भाषा में लिखकर,
संवेदना के कागज पर कई शक्लें अख्तियार की,
लेकिन फिर भी, आज तक भी,
बयां नहीं कर पाया माँ का ममत्व.
कभी घने बादलों में देखता हूँ उसकी परछाई,
जो बरसते हैं निस्वार्थ उन नव अंकुरित के साथ साथ आसमान छूते पेड़ों पर भी,
और कर देते हैं तृप्त धरती के गर्भ तक फैली उनकी जड़ों तक को भी.
तो कभी उस चाय के प्याले में सूंघता हूँ उसकी ममता की महक,
जो पहुँच जाता है मेरी टेबल पर,
पढ़ते पढ़ते रात के 12 बजे भी.
और कभी कभी खाना खाने के बाद आई डकार,
मुझे अहसास करवा ही देती है उसका आत्मीयता भरा प्यार,
और कभी भीतर तक तरंगित कर देता है,
बाहर जाते वक़्त रोज़ उसका ये कहना: बेटा जल्दी आना, बेटा संभल कर जाना!
और कैसे बताऊँ, कितना सुकून देता है,
थके हारे घर जाते ही, टेबल पर पड़ी थाली में खुला पड़ा ढेर सारा प्यार!
सारा दिन चाँद की तरह तपता उसका हृदय
ठंडक पा लेता है, बेटे को छाती से लगाकर.
इंतज़ार करती रहती है सबके घर आने का,
चमका देती है पूरे घर को दिन भर
स्टील के नए बर्तनों की तरह,
आधी रात तक खाना गरम करती रहती है पति के इंतज़ार में,
लेकिन फिर भी रोज़ सुबह उठ जाती है घड़ी का अलार्म बजने से पहले!
माँ की तपस्या, माँ का मर्म कौन जाने,
हर वक़्त बेटे के साथ साथ चलती है,
बेटे की पसंद के नए सांचे में रोज ढलती है,
माँ ऐसे होती है जैसे जून के महीने में कोई ठंडी पवन चलती है,
माँ मोम होती है, ममता की आंच में रोज़ पिघलती है,
बर्फ़ की तरह कभी जमती नहीं,
माँ क्या होती है,…………
घड़ी की टिक–टिक की तरह कभी थमती नहीं, कभी थमती नहीं! !
[गौरव जे. पठानिया, अक्टूबर 2001. कैथल]
